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क्या बटाईदारी का जिन्न भस्म कर देगा तेजस्वी को? जब लालू और नीतीश डर गये तो आग से क्यों खेल रहे हैं 'सीएम इन वेटिंग'

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पटनाः बटाईदारी का जिन्न राजद के बंद बोतल से फिर बाहर निकल आया है। ये मुद्दा बिहार में सामाजिक तनाव का सबसे बड़ा कारण रहा है जो चुनावी समीकरण को छिन्न-भिन्न कर सकता है। यह तनाव जाति आधारित नहीं बल्कि रैयत (खेत मालिक) आधारित है। 1992 में जब लालू यादव ने बटाईदारी व्यवस्था लागू करने की कोशिश की थी तब उसका सबसे अधिक विरोध यादव, कुर्मी और कोइरी जातियों ने किया था। अपना वोट बैंक बिखरने के डर से लालू यादव चुप बैठ गये थे। 2006 में नीतीश कुमार ने भी यह कोशिश की थी। लेकिन चुनावी राजनीति के दबाव में वे भी पीछे हट गये थे। तो क्या तेजस्वी यादव बटाईदारी की मुद्दा उठा कर आग से खेल रहे हैं ?

बटाईदारी का मुद्दा
अब तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन ने बटाईदारी व्यवस्था लागू करने की घोषणा की है। बटाईदारी भाकपा माले का सबसे बड़ा एजेंडा है। भाकपा माले की मान्यता है कि जो खेत जोतेगा (बटाईदार) वही खेत का मालिक होगा। खेत के असल मालिक का अधिकार न के बराबर रहेगा। अब अगर आप ‘गोपीनाथ’ का पुश्तैनी खेत छीन कर ‘महेन्द्रनाथ’ को देंगे तो गोपीनाथ की प्रतिक्रिया क्या होगी? गांव में खेत को जीवन से भी अधिक मूल्यवान माना जाता है। अगर किसी आदमी की सबसे मूल्य चीज छीन ली जाएगी तो नतीजे का अंदाजा लगाया जा सकता है।

भाकपा माले के दबाव में राजद
राजद ने, भाकपा माले के दबाव में बटाईदारी व्यवस्था लागू करने की रजामंदी दी है। जिस व्यवस्था को लालू यादव जैसे शक्तिशाली नेता लागू नहीं कर सके तो क्या तेजस्वी जैसे नये नवेले नेता उसे जमीन पर उतार पाएंगे ? कांग्रेस भी केवल दिखावे के लिए भूमि सुधार की बात करती रही है। वह भी बटाईदारी व्यवस्था को लागू करने के पक्ष में नहीं रही है। वह इसलिए क्यों कि कांग्रेस के पास जो भी बचे-खुचे वोटर हैं वे अपना खेत छीने जाने के डर से दूर भाग जाएंगे। इस घोषणा से केवल भाकपा माले को ही फायदा होगा क्यों कि वह असल मालिक से खेत छीन कर बंटाईदारों को देने की बात करती है। इसलिए बटाईदारी को कभी किसी दल ने चुनाव का मुद्दा नहीं बनाया। माना जा रहा है कि 2020 में बटाईदारी का मुद्दा राजद के लिए भस्मासुर बन जाएगा।


नीतीश भी लागू नहीं कर पाए बटाईदारी व्यवस्था
नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के एक साल बाद यानी 2006 में डी बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में एक भूमि सुधार आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। लेकिन नीतीश कुमार ने इसे लागू नहीं किया। इस रिपोर्ट में कुछ ऐसे प्रावधान थे जो उनके कोर वोटरों को नुकसान पहुंचाने वाले थे। इस रिपोर्ट के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे। जैसे बंटाईदारों के अधिकार की रक्षा के लिए अलग से एक कानून बनाया जाए। बंटाईदार को जमीन पर पुश्त दर पुश्त खेती का अधिकार मिले। उसे हटना संभव न हो। कानूनी मान्यता देने के लिए एक सरकारी पर्चा दिया जाए जिसमें बटाईदार और भूस्वामी का नाम दर्ज हो। यदि जमीन मालिक खेती में खर्च करता है तो उसे उपज का 40 फीसदी और बटाईदार को 60 फीसदी हिस्सा मिले। यदि बंटाईदार खेती में खर्च करता है तो उसे उपज का 70 से 75 फीसदी तक हिस्सा मिले। अगर इन प्रावधानों को लागू किया जाता तो नीतीश कुमार की समर्थक जातियां (सवर्ण, कुर्मी और कोइरी) खफा हो जातीं। वोट बैंक बिगड़ने के डर से नीतीश ने भी बटाईदारी के मुद्दे से किनारा कर लिया।

क्यों डर गये थे लालू यादव
रैयत मतलब जो खेत का मालिक है। बंटाईदार का मतलब वह व्यक्ति जो रैयत का खेत एक साल के लिए तय अनाज या तय रकम पर जोतने के लिए लेता है। अगर बटाईदारी व्यवस्था से केवल सवर्णों को नुकसान होता तो लालू यादव ने 1992 में ही इसे लागू कर दिया होता। 1992 में जब लालू यादव ने बंटाईदारों को अधिकार दोने की केवल मौखिक बात कही थी तब पूरे बिहार में तनाव फैल गया था। लालू यादव की इस घोषणा का सबसे अधिक विरोध यादव, कुर्मी और कोइरी जाति ने किया था। इस विरोध के कारण लालू यादव बुरी तरह डर गये थे। उनका पिछड़ावाद खतरे में पड़ गया था। जातिवाद, जो लालू यादव का मूलधन था, वह अचानक डूबने के कगार पर पहुंच गया। हालात को भांप कर लालू यादव ने चुपचाप इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया था।

अगड़े-पिछड़े से परे है बटाईदारी का मुद्दा
1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव को पिछड़ों का मसीहा कहा जाने लगा। तब मान्यता थी कि अगड़ी जातियों को जितना प्रताड़ित किया जाएगा पिछड़ी जातियों में उतनी ही लोकप्रियता बढ़ेगी। लालू यादव ने आरक्षण के मुद्दे पर बिहार को अगड़े -पिछड़े में बांट दिया। इससे उनको राजनीतिक फायदा भी मिला। लेकिन बटाईदारी के मुद्दे पर वे अगड़े- पिछड़े का विभाजन नहीं कर सके। उस समय खेती से जुड़ी सामाजिक व्यवस्था बदल रही थी। नक्सली हिंसा के डर से सवर्ण अपनी जमीन बेच कर शहरों में जा रहे थे। सवर्णों की जमीन खरीद रहीं थीं पिछड़ वर्ग की मजबूत जातियां। यादव, कुर्मी, कोइरी नये जोतदार बन रहे थे। खेती-बाड़ी से इनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही थी। जिन यादव, कोइरी कुर्मी के पास खेत नहीं था वे किराये (बंटाई) पर खेत लेकर खेती कर रहे थे। इससे उनकी भी खुशहाली बढ़ रही थी।

बटाईदारी कई परिवारों के लिए रोजी-रोटी
लेकिन जैसे ही लालू यादव ने बटाईदारों को अधिकार देने की बात कही सभी खेत मालिक डर गये। उन्हें डर हो गया कि सरकार उनका खेत छीन पर बंटाईदारों को दे देगी। तब सभी खेत मालिकों ने बटाईदारों से खेत वापस ले कर खुद खेती करने की ठान ली। खेत छूटने से यादव, कुर्मी, कोइरी जातियों के सामने रोजी-रोटी का बड़ा सवाल खड़ा हो गया। बटाईदारी से उनके पास साल भर खाने के लिए पर्याप्त अनाज रहता था। पुआल-भूसा रहने से गाय-भैंस पालने में सहूलियत रहती थी। लेकिन खेत छूटने से अचानक सब खत्म हो गया। मई-जून 1992 में पूरे बिहार में लालू यादव के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया। उनके कट्टर वोटर ही उनके खिलाफ हो गये। लालू यादव को अपनी राजनीति खत्म होते दिखने लगी। तब भयभीत लालू यादव ने इस विचार का परित्याग कर दिया। अब उनके पुत्र तेजस्वी ने इसके लिए बीड़ा उठाया है।
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