नई दिल्ली: BJP सांसद निशिकांत दुबे ने शनिवार को कहा कि अगर कानून बनाना सुप्रीम कोर्ट का काम है तो फिर संसद भवन को बंद कर देना चाहिए। इससे पहले राज्यसभा के सभापति व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद-142 के इस्तेमाल पर चिंता जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि यह लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल की तरह है, जो चौबीसों घंटे न्यायपालिका के पास उपलब्ध है। इसके बाद इन बयानों पर सुप्रीम कोर्ट बार असोसिएशन के प्रेसिडेंट कपिल सिब्बल, पूर्व प्रेसिडेंट दुष्यंत दवे और पूर्व जस्टिस जे. चेलामेश्वर की प्रतिक्रिया आई और मामले में तल्खी बढ़ गई। विवाद की शुरुआत: सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को एक ऐतिहासिक फैसले में राज्यपाल के राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समयसीमा निर्धारित कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के लिए भी उन विधेयकों पर कार्रवाई की समयसीमा निर्धारित की, जिन्हें राज्यपाल ने राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए आरक्षित किया हो। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ संशोधन कानून पर सुनवाई के दौरान सरकार से कई तीखे सवाल किए। इसके बाद ही सुप्रीम कोर्ट को लेकर राज्यसभा के सभापति ने और फिर अन्य नेताओं ने टिप्पणी की, जिससे बहस काफी तेज हो गई। अदालत पर गुस्सा: राज्यसभा इंटर्न्स को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय लेने की समयसीमा तय किए जाने को लेकर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट लोकतांत्रिक ताकतों पर परमाणु मिसाइल नहीं दाग सकता। उनका कहना था कि संविधान के तहत कोर्ट के पास एकमात्र अधिकार है अनुच्छेद-145 (3) के तहत संविधान की व्याख्या करने का। सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है और संसद के प्रति जवाबदेह होती है। यही नहीं, निशिकांत दुबे ने शनिवार को कहा कि देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) इस देश में हो रहे सभी गृहयुद्ध के लिए जिम्मेदार हैं। BJP नेता दिनेश शर्मा ने भी सुप्रीम कोर्ट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि संसद और राष्ट्रपति को कोई आदेश नहीं दे सकता। क्या है अनुच्छेद-142: संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को असीम अधिकार प्रदान करता है। इसके तहत अदालत मौजूदा कानूनों को खारिज कर सकती है और जहां कानून में खामियां हैं या गैप है, वहां उसे ठीक भी कर सकती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक दलित स्टूडेंट को IIT धनबाद में दाखिले के लिए इस अनुच्छेद का इस्तेमाल किया था। भोपाल गैस कांड में मुआवजे के लिए भी सुप्रीम कोर्ट ने इस अनुच्छेद का इस्तेमाल किया था। शून्य को भरना: साफ है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पारित कानून की समीक्षा का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट को किसी भी कानून के जुडिशल रिव्यू का भी अधिकार है। इसी के तहत संसद द्वारा पारित NJAC को जब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो कोर्ट ने उसे गैर संवैधानिक करार दिया। इसी के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा IPC की धारा-377 के तहत दो बालिगों के बीच सहमति से बने अप्राकृतिक संबंध को अपराध के दायरे से बाहर किया गया। फटाफट तीन तलाक आदि को भी अदालत इसी अधिकार के तहत निरस्त कर चुकी है। यही नहीं, शीर्ष अदालत कई बार कानून के वैक्यूम को भर भी चुकी है। मसलन, 1997 में सेक्सुअल हैरासमेंट एट वर्क प्लेस को रोकने को लेकर विशाखा गाइडलाइन जारी कर चुकी है। बाद में केंद्र ने इस संबंध में कानून बनाया। संविधान की सर्वोच्चता: संसदीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका- तीनों का अपना तय रोल होता है। जुडिशरी कार्यपालिका के एक्शन को देखती है और संसद द्वारा बनाए गए कानून की समीक्षा कर सकती है। अगर कानून संविधान की परिधि में है तो वह कायम रहता है, लेकिन अगर कोई कानून संविधान के दायरे में नहीं है या मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो वह निरस्त कर दिया जाता है। केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच कह चुकी है कि संसद संविधान संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर यानी मूलभूत ढांचे में कोई बदलाव या छेड़छाड़ नहीं कर सकती है। मूल ढांचा कौन बताएगा: यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि बेसिक स्ट्रक्चर यानी संविधान का मूल ढांचा क्या है, यह सर्वोच्च अदालत देखेगी। यही नहीं, केंद्र और राज्य के बीच कोई विवाद होगा तो वह भी सुप्रीम कोर्ट ही देखता है। इस तरह के तमाम जटिल सवालों को सुप्रीम कोर्ट परखता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट, संविधान का गार्जियन है। यह समझना होगा कि देश संविधान से चलता है। इसी कारण विधायिका के हर कानून और कार्यपालिका के हर एक्शन को सुप्रीम कोर्ट संविधान की कसौटी पर कसता है, ताकि संविधान की सर्वोच्चता बनी रहे।
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