जगदलपुर, 18 सितंबर (हि.स.)। छत्तीसगढ़ के बस्तर दशहरा में विशालकाय दुमंजिला रथ आकर्षण का केन्द्र होता है। बस्तर दशहरा पर्व के अवसर पर प्रतिवर्ष एक विशालकाय रथ निर्माण किया जाता है। लेकिन इसका निर्माण करने वालों को सजा भुगतनी पड़ती है। यह परंपरा रियासत काल से
ही चली आ रही है। आश्चर्य यह कि सजा उन्हें कोई और नही बल्कि उनके समाज लोग ही देते हैं।
दरअसल बस्तर दशहरा में विशालकाय दुमंजिला रथ के निर्माण की जिम्मेदारी सांवरा जाति (अनुसूचित जाति) के लोगों को थी लेकिन जब वे लोग
इस कार्य में हिस्सा लेना कम कर दिया तो इस कार्य को अन्य जाति के लोग करने लगे, जिससे गांव वापस जाने पर समाज के प्रमुख लोग उन्हें रथ का निर्माण करने की सजा देने लगे। दशकों से चली आ रही है यह प्रथा अब परंपरा बन चुकी है, जिसे समाज के लोग निभाते आ रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि बस्तर दशहरा में रथ का निर्माण करने वालों को अनुसूचित जाति की रूढ़िवादी परंपरा के चलते अपने ही समाज से दण्डित किया जाता है और जुर्माने की अदायगी के बाद पुनः उन्हे अपनी जाति में सम्मिलित किया जाता है। इस तरह की यह गलत परंपरा कई दशकों से बस्तर में चल आ रही है। पिछले कई वर्षों से रथ बनाने वाले प्रतिवर्ष अपने गांव के सामाजिक पंचायत में लगभग दो हजार रुपये का आर्थिक दंड भरते आ रहे हैं और यह एक परंपरा अब भी निभाई जा रही है।
इस बारे में बस्तर के साहित्यकार रुद्रनारायण पाणिग्राही ने बताया कि रियासत काल से ही रथ बनाने का जिम्मा अंचल के सांवरा जाति को सौंपा गया था। लगभग 610 वर्षों से अधिक बस्तर दशहरा की परम्पराएं किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। प्रत्येक जाति और अनुसूचित जाति के लोगों को बस्तर दशहरा पर्व के संपन्नता के लिए रियासत के समय से ही अलग-अलग कार्य सौंपा गया था। इसी क्रम में झार उमरगांव और बेड़ा उमरगांव के सांवरा लोगों को रथ निर्माण का कार्य सौंपा गया था। इस कार्य के लिए पूरा का पूरा गांव समर्पित रूप से लगभग एक महीने के लिए घर-परिवार और कृषि कार्य को छोड़कर रथ निर्माण के लिए जगदलपुर पहुंचता था। लेकिन धीरे-धीरे सांवरा जाति के लोगों की उदासीनता के चलते गिने-चुने लोग ही रथ निर्माण के लिए पहुंचने लगे, जिससे निर्माण की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होने लगी। इस कार्य के लिए लगभग 150 लोगों की आवश्यकता होती है।
इस संबंध में रथ निर्माण के वर्तमान मुखिया दलपति बताते हैं कि रियासत काल में समर्पण की अलग भावना थी। अब यह कार्य समर्पण की भावना से करना कठिन होता है। लोग अपने घरबार, खेती-किसानी छोड़कर अगर यहां आते हैं तो उन्हें साल भर का नुकसान हो जाता है। रथ निर्माण के लिए लोगों को पारिश्रमिक नहीं मिलता, इसलिए सांवरा जाति के लोग अब अपना काम छोड़कर नहीं आते हैं। इन कारणों से अन्य जातियों धाकड़ ,भकरा और हलबा आदि लोगों से, संवरा जाति के नाम से काम लिया जाता है।
वे बताते हैं कि जब ये रथ बनाकर अपने गांव लौटते हैं तो अन्य जाति, जनजाति के लोगों को पुनः अपने मूल जाति में सम्मिलित करने के लिए सामाजिक रिवाजों का पालन करना होता है। इसके लिए गांव के मुखिया, पटेल के आदेशानुसार जुर्माना की राशि भरना होता है। साथ ही समाज में पुनः सम्मिलित करने के लिए सामाजिक भोज के लिए बकरा भी देना होता है। इसके बाद गंगाजल छिड़ककर प्रत्येक व्यक्ति का शुद्धिकरण किया जाता है, तद्पश्चात गांव में प्रवेश करने दिया जाता है।
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हिन्दुस्थान समाचार / राकेश पांडे
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