सुबह छह बजे जब हम आफ़ना से मिलने पहुंचे, तो वह स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी. उसके चेहरे पर हल्की मायूसी थी क्योंकि उसके स्कूल बैग की ज़िप टूट गई थी और उसे अपने छोटे भाई का बैग लेकर जाना पड़ रहा था.
हमें देखकर वह मुस्कुराई और झिझकते हुए बोली, "आप मुझसे क्या बात करेंगे?" आफ़ना ने बताया कि वह ठीक से बात नहीं कर पाती और उसे ऐसा करते हुए शर्म आती है.
उसकी मां रशीदा ने उसे एक छोटी सी गुलाबी प्लास्टिक की पानी की बोतल दी, जिसे वह गली के नल से भरकर ले आई. फिर रशीदा ने उसे उसी रंग का टिफ़िन थमा दिया, जो खाली था.
ये हमें थोड़ा अजीब लगा. कोई बच्ची खाली टिफ़िन लेकर स्कूल क्यों जाएगी? इसी दौरान एक और बच्ची आई और आफ़ना को साथ चलने के लिए बुलाया.
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आफ़ना, उन 19 रोहिंग्या बच्चों में से एक है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद सरकारी स्कूल में दाख़िला मिला है.
पूर्वी दिल्ली के खजूरी ख़ास इलाके में रहने वाली रशीदा कहती हैं कि उन्हें सही-सही याद नहीं, लेकिन पांच साल हो गए हैं दिल्ली आए हुए.
वो एक तंग गली में बने एक कमरे के किराए के घर में रहती हैं. बातचीत के दौरान वो बार-बार पूछती हैं, "हमें म्यांमार तो वापस नहीं भेज दिया जाएगा?"
और हर बार भारत सरकार का शुक्रिया भी करती हैं.
हम आफ़ना के साथ उसके स्कूल तक गए. रास्ते में उसकी सहेलियां भी उससे मिलती रहीं. सिर्फ आफ़ना ही थी जो स्कूल यूनिफॉर्म में नहीं थी. जब हमने इसका कारण पूछा तो उसने बताया, "अभी स्कूल से ड्रेस नहीं मिली है."

साल 2024 में दिल्ली सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर निर्देश दिया था कि स्कूलों में दाख़िले की प्रक्रिया का सख़्ती से पालन हो और दस्तावेज़ों की ठीक से जांच की जाए ताकि अवैध रूप से आए बांग्लादेशी प्रवासियों को रोका जा सके.
इसी मुद्दे पर अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंग्या समुदाय को लेकर भारतीय जनता पार्टी और दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार के बीच तीखी बहस छिड़ गई थी.
उस वक़्त की शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री आतिशी के एक बयान के बाद इन बच्चों के स्कूल में दाख़िले की प्रक्रिया रोक दी गई थी.
आतिशी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा था, "एक तरफ भाजपा है, जो बांग्लादेश से बॉर्डर पार करवा कर रोहिंग्याओं को दिल्ली लाती है और दिल्ली वालों के हक़ के ईडब्ल्यूएस फ्लैट और दूसरी सुविधाएं उन्हें देती है. दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार है, जो हर संभव कोशिश कर रही है कि रोहिंग्याओं को दिल्ली वालों का हक़ न मिले."
"आज शिक्षा विभाग ने सख़्त आदेश दिया है कि किसी भी रोहिंग्या को दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाख़िला न दिया जाए. हम दिल्ली के लोगों का हक़ छीनने नहीं देंगे."
हुसैन अहमद पिछले दस साल से दिल्ली में रह रहे हैं. वो मिस्त्री का काम करते हैं और पिछले कुछ महीनों से संयुक्त राष्ट्र की मदद से रोहिंग्या बच्चों के लिए एक ट्यूशन सेंटर चला रहे हैं.
इस सेंटर में उनके समुदाय के ही कुछ बच्चे पढ़ाई करते हैं.
भारत में रह रहे शरणार्थियों की मदद संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर करती है, जो उन्हें पहचान के लिए एक कार्ड जारी करती है.
यह कार्ड एक तय समय के लिए मान्य होता है, जिसे समय-समय पर रिन्यू कराना पड़ता है.
हुसैन बताते हैं कि रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में उन्हें नजदीकी थाने को नियमित जानकारी देनी होती है.
वो कहते हैं, "यहां कुल 65 परिवार रहते हैं. अगर किसी परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है या किसी की मौत हो जाती है, तो हमें हर महीने जाकर इसकी जानकारी देनी होती है."
लेकिन हाल की घटनाओं के बाद माहौल में डर फैल गया है.
हुसैन कहते हैं, "अभी लोग डरे हुए हैं और बात नहीं करना चाहते. शायद उन्होंने अपने बड़ों से सुन रखा है कि मीडिया से बात नहीं करनी चाहिए. इसके बावजूद कुछ लोग हमसे बात कर रहे हैं. देखते हैं, आगे क्या होता है.''
बच्चों के स्कूल में दाख़िले को लेकर हुसैन अहमद ने हाईकोर्ट में मदद के लिए वरिष्ठ वकील अशोक अग्रवाल से संपर्क किया था.
अग्रवाल बताते हैं कि साल 2024 में उन्हें हुसैन का फ़ोन आया, जिसमें उन्होंने रोहिंग्या बच्चों के दाख़िले में आ रही मुश्किलें बताईं.
अशोक अग्रवाल इससे पहले भी अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान से आए हिंदू बच्चों का दाख़िला सरकारी स्कूलों में करवा चुके हैं.
इस मामले में उन्होंने पहले दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन कोर्ट ने इसे गृह मंत्रालय का विषय बताते हुए वहीं जाने को कहा.
इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. वहां से उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली और कोर्ट ने इन बच्चों के परिवारों से जुड़े ज़रूरी दस्तावेज़ जमा करने को कहा.
अग्रवाल कहते हैं कि रोहिंग्याओं के जैसे हालात हैं, उनमें देश छोड़ने पर मजबूर हुए लोगों के पास संयुक्त राष्ट्र (यूएनएचसीआर) का शरणार्थी कार्ड होता है. ऐसे में बच्चों को शिक्षा से वंचित रखना सही नहीं था.
अशोक अग्रवाल का कहना था, ''भारत का संविधान और शिक्षा का अधिकार यह कहता है कि कोई भी बच्चा, चाहे वह कहीं का भी नागरिक हो, उसे शिक्षा का अधिकार है. हालांकि हमारा कोई दुश्मन देश नहीं है लेकिन यदि होता भी और उस देश का कोई बच्चा हमारे देश में पढ़ रहा होता तो उसे भी पढ़ने का अधिकार मिलना चाहिए. क़ानून यही कहता है. सुप्रीम कोर्ट ने इन बच्चों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की बात कही है. कोर्ट ने कहा है कि ये बच्चे सरकारी स्कूलों में दाख़िला ले सकते हैं.''

वो मानते हैं कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया गया है. यह देखा गया है कि जब भी इस तरह के मामले सामने आते हैं तो सबसे ज़्यादा प्रभावित बच्चे और महिलाएं ही होती हैं.
भारतीय संविधान के अनुसार, जो भी शरणार्थी बच्चे यहां रह रहे हैं, उन्हें अनुच्छेद 14, 15, 21 और 21ए के तहत स्कूल में शिक्षा पाने का अधिकार है.
यही बात शिक्षा का अधिकार क़ानून, 2009 में भी कही गई है. इस मामले में यह मायने नहीं रखता कि इन बच्चों की नागरिकता किस देश की है.
इस बीच हम आफ़ना के घर पर उसके स्कूल से लौटने का इंतज़ार कर रहे थे.
जब वह लौटी, तो काफी खुश थी. आज स्कूल में उसे हलवा मिला था और उसे मीठा बहुत पसंद है. हमने पूछा कि वह खाली टिफ़िन क्यों लेकर गई थी.
आफ़ना ने बताया, ''मम्मी कहती हैं कि आज खाना नहीं है. कई बार पैसे भी नहीं होते कि कुछ खाने के लिए दे सके. तो खाली टिफिन देती हैं फिर उसी में मैं स्कूल से मिलने वाला खाना ले लेती हूं.''
आफ़ना को स्कूल पसंद है और उसकी कुछ सहेलियां भी बन गई हैं और पढ़ाई में भी मदद करती हैं.
वो आठवीं कक्षा में पढ़ती है. हालांकि अभी उसे कई चीज़ें ठीक से समझ नहीं आतीं. उसे पेंटिंग करना पसंद है. साथ ही अपनी एक सहेली के घर दाल-गोश्त और बिरयानी खाना भी उसे बहुत अच्छा लगता है.
आफ़ना बात-बात पर शरमा जाती है. फिर थोड़ी देर रुककर कहती है ''मैं लोगों की मदद करना चाहती हूं, इसलिए डॉक्टर बनना चाहती हूं. मैं यहां ज्यादा बाहर नहीं जाती क्योंकि यहां माहौल ख़राब है. लड़के बैठे रहते हैं. कुछ-कुछ बोलते हैं.''
वह यह भी बताती है कि उसे कहानियां सुनना अच्छा लगता है. आज उसे टीचर ने उन पक्षियों के बारे में बताया है जो मौसम बदलने पर दूसरी जगह चले जाते हैं.
वह बताती है, ''मैंने मोबाइन फ़ोन पर कहानियां देखी हैं जिसमें ग़रीब लोग जो मांगते हैं, उन्हें जादू से मिल जाता है. अलादीन के चिराग से मैं पहले चाहूंगी कि मैं डॉक्टर बन जाऊं कि मेरी पढ़ाई जल्दी हो जाए. दिमाग में पढ़ाई जल्दी समझ आ जाए. मैं सबकी मदद कर सकूं.''
रशीदा बेगम बार-बार भारत सरकार का शुक्रिया अदा करती हैं. वो कहती हैं, "यहां कोई हमें परेशान नहीं करता. यहां शांति है, सुकून है."
लेकिन जैसे ही म्यांमार के हालात याद आते हैं, उनकी आंखें भर आती हैं.
उनके अनुसार, "मेरा देश छूट गया. मेरे माता-पिता को मार दिया गया. भाई का परिवार नहीं रहा. हम जैसे-तैसे जान बचाकर भागे हैं."
रशीदा बेगम बताती हैं, "मेरे चार बच्चे हैं. दो बच्चे बहुत छोटे थे. हालांकि मैं पहले भी इंडिया आना चाहती थी, लेकिन इन हालात में आऊंगी, यह नहीं सोचा था. मेरी ज़िंदगी तो बर्बाद हो ही गई, लेकिन मेरे दो बच्चों को स्कूल में दाख़िला मिल गया. इसके लिए सबका शुक्रिया. मेरी बड़ी बेटी 18 साल की हो गई है. बेटा 15 साल का है. वह मज़दूरी करता है. बहुत मुश्किल से हमारा काम चलता है. मेरी तबीयत ख़राब रहती है, तो मैं लगातार काम नहीं कर पाती."
उन्होंने कहा "मेरे बच्चे बहुत समझदार हैं. मुझे अपने बच्चों को पैसे देने चाहिए, लेकिन मुझे उनसे पैसे मांगने पड़ते हैं. बहुत दुख होता है. भारत में जैसे हिंदू-मुसलमान को एक आधार कार्ड दिया गया है, सबका झंडा एक ही है, अगर वहां (म्यांमार) पर बौद्ध और मुसलमानों को भी एक ही कार्ड दिया जाता, अगर मेरी ज़मीन, घर वापस मिल जाता और शांति हो जाती, तो मैं वापस ज़रूर जाती. लेकिन अगर मारकाट होगी, जेल में डाल देंगे या आग और गर्म पानी डाल देंगे, तो मैं नहीं जाऊंगी."
लेकिन रशीदा इस बात से परेशान हो जाती हैं कि आफ़ना को फिलहाल स्कूल में विषयों को समझने में समय लग रहा है. हमने इस बारे में आफ़ना की स्कूल की प्रिंसिपल से बात करनी चाही, लेकिन उन्होंने मना कर दिया.
क्या कहते हैं शिक्षकविनोद कुमार शर्मा एक अन्य स्थानीय नगर निगम स्कूल के प्रिंसिपल हैं. वो बताते हैं कि साल 2012–2013 के सत्र से उनके स्कूल में रोहिंग्या बच्चे-बच्चियां पढ़ने आ रहे हैं.
पहले वे इसी स्कूल में शिक्षक थे, लेकिन पिछले दो सालों से प्रिंसिपल हैं. स्कूल कक्षा 1 से 5 तक है. सरकारी स्कूलों में दो शिफ़्ट में पढ़ाई होती है.
सुबह की शिफ़्ट लड़कियों के लिए और दोपहर की लड़कों के लिए होती है. शुरुआती सालों में 20–25 रोहिंग्या बच्चे आए थे लेकिन फिलहाल गिनती के दो-तीन बच्चे ही रह गए हैं.
प्रिंसिपल विनोद शर्मा बताते हैं, "शिक्षा का अधिकार क़ानून आने के बाद से बच्चों का दाख़िला उनकी उम्र के मुताबिक़ होता है. ऐसे में रोहिंग्या या किसी अन्य बच्चे का दाख़िला भी उम्र के हिसाब से जिस कक्षा में होना चाहिए वहीं दिया जाता है."
हमने पूछा कि ऐसे में क्या बच्चों को कठिनाई नहीं होती, क्योंकि उनका शैक्षणिक स्तर अक्सर बाकी बच्चों के बराबर नहीं होता. आफ़ना का उदाहरण देते हुए हमने बताया कि उसे अभी कई विषयों को समझने में दिक्कत आ रही है.
विनोद शर्मा कहते हैं कि शुरुआत में बच्चे और उनके माता-पिता हमारी भाषा और हावभाव को नहीं समझ पाते, जिससे भ्रम की स्थिति बन जाती थी. लेकिन समय के साथ हालात बेहतर हुए हैं.
वो आगे कहते हैं, "आफ़ना हमारे स्कूल में तो नहीं है, लेकिन ऐसे बच्चों को एक स्तर पर लाने के लिए 'फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमरेसी' के तहत पढ़ाई कराई जाती है. पहले सर्व शिक्षा अभियान के तहत अलग से शिक्षक दिए जाते थे, जो इन बच्चों को पढ़ाते थे. जब उनका स्तर सुधर जाता था तब उन्हें कक्षा में शामिल कर लिया जाता था. ऐसा नहीं है कि केवल शरणार्थी बच्चों को ही दिक्कत होती है — हर बच्चा एक जैसा नहीं होता. ऐसे दूसरे बच्चे भी होते हैं. आफ़ना के साथ भी यही कोशिशें हो रही होंगी."
आफ़ना के छोटे-छोटे सपने
दिल्ली के कालिंदी कुंज की बस्तियों में रह रहे रोहिंग्या लोगों का कहना है कि उनकी ज़िंदगी बेहद संघर्षपूर्ण है.
उन्हें कोई आसानी से काम नहीं देता, ऐसे में मज़दूरी करनी पड़ती है और किराया देना भी मुश्किल हो जाता है.
ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक़, भारत में तक़रीबन 40,000 रोहिंग्या रह रहे हैं.
साल 2017 में म्यांमार की सेना की ओर से रोहिंग्या मुसलमानों पर की गई कार्रवाई के बाद लाखों लोगों को देश छोड़ना पड़ा.
एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, म्यांमार की सेना ने बड़े पैमाने पर रोहिंग्या समुदाय की महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार और शोषण किया.
भारत में रह रहे रोहिंग्या मुसलमान दिल्ली, नूंह, जम्मू और हैदराबाद के कई इलाकों में बसे हुए हैं. अपने देश से मीलों दूर रह रही आफ़ना के भी छोटे-छोटे सपने हैं.
जब उससे पूछा गया कि क्या वह म्यांमार वापस जाना चाहेगी, तो उसने मुस्कराते हुए कहा, "मुझे दिल्ली पसंद है. मेरी यहां दोस्त बन गई हैं."
आफ़ना लाल क़िला घूम चुकी है और इस रमज़ान में उसने जामा मस्जिद में इफ़्तारी भी की.
लेकिन वह अब भी मोबाइल फोन पर देखे गए रंग-बिरंगे इंडिया गेट को असल में देखना चाहती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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