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राज खोसला: 'मेरा साया', 'वो कौन थी' से लेकर 'मेरा गांव मेरा देश' जैसी फ़िल्मों के जादूगर

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Getty Images राज खोसला पर जारी किया गया भारत सरकार का डाक टिकट

अगर रमेश सिप्पी की आलीशान फ़िल्म 'शोले' हिंदी दर्शकों के लिए क्लाइमेक्स की तरह थी, तो 1971 में, 'शोले' से चार साल पहले आई निर्देशक राज खोसला की 'मेरा गांव मेरा देश' वो फ़िल्म मानी जा सकती है, जिसने लोगों को 'शोले' के लिए तैयार किया था.

'मेरा गांव मेरा देश' में एक बाजू वाला रिटायर्ड फ़ौजी (अभिनेता जयंत और अमजद ख़ान के पिता) जेल में सज़ा काट चुके चोर अजीत (धर्मेंद्र) को अपने गांव बुलाता है. नेकदिल वो चोर यानी धर्मेंद्र अपना हर फ़ैसला सिक्का उछाल कर करता है.

धीरे-धीरे वही फ़ौजी धर्मेंद्र को बदलकर, उसे डाकू जब्बर सिंह (विनोद खन्ना) और उसके गिरोह से लड़ने के लिए तैयार करता है, जिन्होंने सालों से गांव में क़हर बरपा रखा है.

बेहतरीन एक्शन, पटकथा और संगीत से लैस निर्देशक राज खोसला की यह फ़िल्म उस दौर की एक छोटी सी मिसाल है.

31 मई 1925 को पंजाब में जन्मे राज खोसला 1950 से लेकर 80 के दशक के बीच अपनी बेहतरीन हिंदी फ़िल्मों और गानों के लिए जाने जाते हैं.

इस साल उनका 100वां जन्मदिन मनाया जा रहा है.

'झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में' image KHOSLA ENTERPRISES 'मेरा गांव मेरा देश' वो फ़िल्म मानी जाती है जिसने लोगों को 'शोले' के लिए तैयार किया

अगर आज की पीढ़ी के कुछ लोग राज खोसला के काम से ज़्यादा वाक़िफ़ न हों, तो उन्हें करण जौहर की फ़िल्म 'रॉकी और रानी की प्रेम कहानी' का यह हिट गाना तो याद ही होगा, 'वाट झुमका, झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में.'

धूम मचा देने वाला यह गाना असल में 1966 में आई निर्देशक राज खोसला की फ़िल्म 'मेरा साया' का है.

'तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा', मेरा साया का यह गाना जब पहली दफ़ा दूरदर्शन पर देखा था, तो एक अजीब सी ख़ुमारी कई दिनों तक छाई रही थी.

राज खोसला की दुनिया से यह मेरी पहली पहचान थी, जिन्होंने 50 से लेकर 80 के दशक तक राज किया.

एक्शन, म्यूज़िकल, सस्पेंस सबके माहिर राज खोसला image GURU DUTT MOVIES राज खोसला की फ़िल्म 'सीआईडी' का एक दृश्य

हिंदी सिनेमा में कम ही ऐसे निर्देशक हुए हैं जिन्होंने थ्रिलर, ड्रामा, एक्शन, डाकुओं की फ़िल्में, म्यूज़िकल लगभग हर तरह का सिनेमा बनाया हो.

राज खोसला उन चंद निर्देशकों में शामिल हैं.

राज कपूर, गुरु दत्त और विजय आनंद जैसे दिग्गजों के बीच रहते हुए भी ऐसा कर पाना कोई मामूली बात नहीं थी.

याद कीजिए 1956 में आई देव आनंद की सस्पेंस थ्रिलर 'सीआईडी', या 'वो कौन थी' (1964), जिसमें साधना के ज़रिए राज खोसला सस्पेंस का बेहतरीन ताना-बाना बुनते हैं.

ओपी नैय्यर के संगीत में सराबोर म्यूज़िकल फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना भी' राज खोसला का ही कमाल थी, जिसमें 'बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी' और 'आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे' जैसे गाने थे.

वहीदा रहमान को किया था लॉन्च image Getty Images वहीदा रहमान (फ़ाइल फ़ोटो)

1966 की ट्रैजिक रोमांस फ़िल्म 'दो बदन' भी राज खोसला ने ही बनाई थी.

राज खोसला की 'सीआईडी' वही फ़िल्म है जिसमें पहली बार वहीदा रहमान को लॉन्च किया गया- वो भी वैंप (खलनायिका) के रोल में.

फ़िल्म शुरू हुए अभी सिर्फ़ 40 सेकेंड ही होते हैं, जब बिना चेहरा दिखाए कैमरा पीछे से एक औरत को फ़्रेम में क़ैद करता है, जब वह टेलीफ़ोन डायल करती है.

और लोग पहली बार पर्दे पर वहीदा रहमान की आवाज़ सुनते हैं, "मैं हूँ, उसे किसी तरह रास्ते से हटा दो. हो सके तो रुपये से, वरना... समझे."

और फ़िल्म शुरू होने के एक मिनट के भीतर ही सस्पेंस बन चुकी होती है.

गाने थे राज खोसला की ख़ासियत image PYARELAL संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के प्यारेलाल

राज खोसला संगीत में प्रशिक्षित थे और ऑल इंडिया रेडियो में काम करते थे.

गायक बनने की तमन्ना रखते थे, लेकिन जब फ़िल्मकार बन गए तो मदन मोहन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और ओपी नैय्यर जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर ऐसे गाने दिए जिन्हें पिक्चराइज़ेशन की मास्टरक्लास माना जाता है.

राज खोसला की फ़िल्म का गाना 'लग जा गले'... पीढ़ियों, वक़्त और सरहदों की सीमाएं पार कर आज तक गाया जाता है.

कुछ दिन पहले जब सलमान ख़ान की फ़िल्म 'सिकंदर' देखी, तो रश्मिका मंदाना यही गाना (बेसुरा) गाकर अपने लिए प्यार के कुछ पल चुराने की गुज़ारिश करती हैं.

'लग जा गले' को जब कर दिया था रिजेक्ट image hachette राज खोसला ने शुरुआत में 'लग जा गले' गाना को ख़ारिज कर दिया था

लेखक अम्बरिश रॉय चौधरी ने राज खोसला की बेटियों, अनीता खोसला और उमा खोसला कपूर के साथ मिलकर किताब लिखी है, राज खोसला – द ऑथराइज़्ड बायोग्राफ़ी.

इस किताब में मनोज कुमार बताते हैं, "मुझे एक दिन मदन मोहन का कॉल आया कि राज खोसला का दिमाग़ ख़राब हो गया है. एक गाना सुनाया (लग जा गले). उसको पसंद नहीं आया. तुम आओ और संभालो."

मनोज कुमार के बार-बार कहने पर राज खोसला ने दोबारा सुना और राज़ी हुए.

किताब में लिखा गया है कि बाद में राज खोसला ने अचरज किया कि वो ऐसा गाना छोड़ने वाले थे और अपना जूता उठाकर सिर पर मारने लगे.

गानों में ही कह जाते थे कहानी image NARINDER NANU/AFP/Getty Images राज खोसला की फ़िल्म 'मेरा गांव मेरा देश' में विनोद खन्ना ने डाकू की भूमिका निभाई थी

जिस तरह से ये गाने फ़िल्माए जाते थे, वही राज खोसला की फ़िल्मों की सबसे बड़ी ख़ासियत बनते थे.

मसलन, 'मेरा गांव मेरा देश का गाना' 'हाय शर्माऊं किस-किस को बताऊं' देखिए, आनंद बख़्शी के बोलों वाला ये गाना फ़िल्म के सस्पेंस और कहानी को आगे बढ़ाता है, जहां डाकू बने विनोद खन्ना और उन्हें पकड़ने के लिए धर्मेंद्र वेश बदल कर मेले में घूम रहे होते हैं.

और लक्ष्मी छाया अपने गाने में छिपे सुरागों के ज़रिए डाकुओं का पता बताती हैं, जब वो गाती हैं- "वहां पीपल के पी... वहाँ मेले में सबसे पीछे... खड़ा."

मुमताज़, साधना, आशा पारेख... सबको चमकाने वाले image Khalid Mohammad and Om publication आशा पारेख

राज खोसला की कई फ़िल्मों ने औरतों की कहानी उनके नज़रिए से कहने की कोशिश की. 'मेरा साया' और 'वो कौन थी' जैसी फ़िल्मों में उन्होंने साधना को बेहद असरदार भूमिकाएं दीं.

अकसर गानों और डांस के लिए मशहूर आशा पारेख को राज खोसला ने 'दो बदन' में अपनी एक्टिंग का दम दिखाने का मौक़ा दिया. इसी फ़िल्म के लिए सिमी ग्रेवाल को फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी मिला.

जब मुमताज़ बी-ग्रेड फ़िल्मों में काम कर रही थीं, तब 'दो रास्ते' (1969) के ज़रिए राज खोसला ने उन्हें मुख्यधारा की हीरोइन बनाने में मदद की.

1978 में आई 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' में राज खोसला ने दो औरतों की कहानी दिखाई, उनका अंतर्द्वंद, सम्मान और कशमकश.

एक जो पत्नी होने का फ़र्ज़ निभा रही है (नूतन), और दूसरी जो प्रेमिका की भूमिका में है (आशा पारेख).

जब 40 की उम्र पार करने के बाद हीरोइनों को मुख्य भूमिका मिलनी मुश्किल होती थी, तब नूतन ने राज खोसला के निर्देशन में 42 साल की उम्र में अपना पांचवां फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड जीता.

राज खोसला की निजी ज़िंदगी image DHARMA PRODUCTION 1980 में आई दोस्ताना फ़िल्म को भी राज खोसला ने डायरेक्ट किया था

हालांकि, कलाकारों के साथ उनके मतभेद भी रहे, लेकिन फ़िल्म पर उसका असर कभी नहीं दिखा.

निजी ज़िंदगी में राज खोसला के अपने तयशुदा मूल्य थे. फ़िल्मफ़ेयर को दिए इंटरव्यू में उनकी बेटी अनीता खोसला ने बताया था, "पिताजी के मुताबिक़ लड़कियों को शादी करके घर बसाना चाहिए. हम बहनें पतलून नहीं पहन सकती थीं या बिना दुपट्टे के नहीं निकल सकती थीं. हम थिएटर नहीं जा सकते थे."

"हालांकि बहुत मामलों में वो हम बहनों को बहुत लाड़ भी करते थे. वो मूडी थे, टेंपरामेंटल थे, पर हर वक़्त इमोशनल."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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