उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 71 किलोमीटर दूर इन्हौना में सफ़ेद और लाल रंग की अपनी भव्य हवेली के दालान में 45 साल के मोहम्मद शुजा सफ़ेद कुर्ता पहने नमाज़ पढ़ रहे हैं.
नमाज़ पूरी कर वे टोपी उतारते हैं और हवेली से बाहर निकलते हैं, जहाँ से महज पचास मीटर की दूरी पर 25 एकड़ में दशहरा मेला लगा है.
चौधरी शुजा पेशे से बैंकर हैं, लेकिन यहां उनका रोल कुछ अलग है. वे और उनका परिवार इस दशहरा मेला के आयोजक हैं.
ये परम्परा चौधरी शुजा के परदादा चौधरी अकबर हुसैन ने 1867 में शुरू की थी, जो आज 158 साल बाद भी जारी है. अब दशहरा मेला और रामलीला कराने की ज़िम्मेदारी चौधरी मोहम्मद शुजा और उनका परिवार निभा रहा है.

मोहम्मद शुजा बताते हैं, "हम 158 साल से दशहरा मेला करते आ रहे हैं. हमारी छठी पीढी इसे आगे बढ़ा रही है. भगवान राम को हम उसी तरह मानते हैं जैसे अपने यहाँ पैगम्बर हैं. उन्होंने अच्छाई की राह दिखाई, हमें उनकी उतनी ही इज़्ज़त है. चाहे जितने भी मसरूफ़ हों, हम वक्त निकालकर अपनी ज़मीन पर रामलीला और मेला कराते हैं."
शुजा की पत्नी निदा अमीना दावा करती हैं, "हमें नहीं लगता कि ऐसा कहीं और होता होगा. हमारे लिए ये बहुत क़ीमती चीज़ है. हम इसे अपना ही त्योहार समझ कर मनाते हैं. यही नहीं होली की शुरुआत भी हमारे घर से होती है. पंडित जी आते हैं जंत्री निकालते है और पहले रंग यहां खेला जाता है, फिर पूरे गाँव में होली मनाई जाती है."
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चौधरी ख़ानदान के चौधरी फ़व्वाद हुसैन पुराने दिनों को याद करते हैं, "हम बहुत छोटे हुआ करते थे तब राम जी, सीता जी और लक्ष्मण जी को यहाँ तैयार किया जाता था और इस हवेली में रावण आगे आगे जाता था ढोल नगाड़ों के साथ और तीन चार हाथियों पर राम जी और सीता जी और दूसरे किरदार जाते थे. ये राजा रामचन्द्र जी की विजय का त्योहार है, वो हिंदुस्तान के राजा थे और हिन्दू मुस्लिम सबके राजा थे, तो ये सबका त्योहार है, ये हमारी संस्कृति है, हमारी हिस्ट्री है."
देश भर में दशहरा मेला और रामलीला होती है लेकिन इन्हौना की रामलीला सिर्फ़ इसलिए ख़ास नहीं है कि इसे चौधरी ख़ानदान कराता है, इसकी ख़ासियत ये भी है कि बड़े पैमाने पर मुसलमान यहां आते हैं और रामलीला देखते हैं.

इतना ही नहीं इस रामलीला का आयोजन दशहरा के अमूमन दस दिनों बाद होता है. इस साल का आयोजन 11 और 12 अक्तूबर को हुआ था. दो दिन चलने वाले इस मेले में हर साल आस-पास के इलाक़ों से क़रीब पच्चीस हज़ार लोग आते हैं.
इस मेले की लोकप्रियता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इसमें एक हज़ार से ज़्यादा दुकानों लगती हैं जिनमें खाने पीने से लेकर मिट्टी के खिलौने तक बिकते हैं.
इन्हौना यूपी के अमेठी ज़िले का छोटा सा कस्बा है. पच्चीस हज़ार की आबादी वाले इन्हौना की क़रीब चालीस फ़ीसदी आबादी हिंदुओं की है. लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि दशहरे के 158 साल के अब तक के इतिहास में कभी भी यहाँ दशहरे मेले और रामलीला का विरोध नहीं हुआ.
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12 अक्तूबर के दिन मैदान में भीड़ ठसाठस भरी है. स्टेज पर रामचरितमानस का सुंदरकांड चल रहा है. हनुमान जी लंका पहुंचे हैं और लंका दहन का दृश्य चल रहा है. मैदान के बीचोंबीच में 40 फ़ीट ऊंचा रावण का पुतला है जिसमें राम और लक्ष्मण तीर से आग लगाते हैं.
चौधरी मोहम्मद शुजा भी वहीं मौजूद हैं, उनके साथ कई मुस्लिम परिवार, जिनमे बुर्क़ा पहने औरतें रामलीला की तस्वीरें और सेल्फ़ी ले रही हैं. 40 फ़ीट का रावण का पुतला भी चौधरी मोहम्मद शुजा के घर पर ही तैयार होता है.

निदा बताती हैं, "रामलीला की तैयारियां कई दिन पहले से शुरू हो जाती हैं. सबसे पहले हवेली में रावण बनना शुरू होता है. रावण को सजाने के लिए पेपर लाना हो, सजावट करनी हो या कॉस्ट्यूम तैयार करना हो, सब हम लोग ही करते हैं."
यहां रामलीला करना कलाकारों के लिए भी एक अलग एहसास है. रामलीला के डायरेक्टर इन्द्रसेन मौर्या कहते हैं, "सबसे बड़ी बात ये है कि चौधरी साहब मुस्लिम होते हुए भी दशहरा इतने धूमधाम से मनाते हैं. पहले यहां मुस्लिम कलाकार भी रामलीला में रोल करते थे. सबसे अच्छा ये लगता है कि बड़ी तादाद में मुस्लिम समाज भी यहां रामलीला देखने आता है."
इन्हौना के मेले में आये 65 साल के श्रीगोपाल गुप्ता कहते हैं, "इस मेले में हमलोग बचपन से आ रहे हैं. देश मे आज जब लोग जात पात और धर्म के नाम पर बंट रहे हैं, वहां चौधरी खानदान गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल कायम कर रहा है. इस मेले से हर तबके के लोगो को जोड़ने का काम होता है. किसी को रोज़ी मिलती है तो किसी को आनन्द."
वहीं 50 साल के विनय कुमार सरोज कहते हैं, "बचपन में इस मेले की अहमियत नहीं समझता था. लेकिन अब समाज में तनाव और अलगाव बढ़ता देखता हूँ तो लगता है कि ऐसे मेले की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है."
निदा भी मानती हैं कि, "आज जब कम्युनल टेंशन और डिवाइड इतने बढ़ रहे हैं तो माहौल को देखते हुए ये थोड़ा मुश्किल हो गया है. लेकिन अब हमें लगता है कि इस मेले को जारी रखने की हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है."
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मोहम्मद शुजा भीड़ देखकर काफी खुश हैं, कहते हैं, "इन डेढ़ सौ सालों में कभी किसी ने विरोध नहीं किया कि हम दशहरा मेला क्यों कर रहे हैं."
मेले में बीते पांच दशक से देखने वाले मोहम्मद शमीम पुराने ज़माने को याद करते हैं, "हमारे चौधरी अख़्तर हुसैन साहब बाकायदा पूरी चौपाइयों को पढ़ते थे और रामलीला को गाइड करते थे. यहां हिन्दू मुसलमान का कोई फ़र्क़ नहीं है. यहां ईद की नमाज़ के बाद सैकड़ों हिन्दू मस्ज़िद के बाहर इत्र लिए खड़े रहते हैं, नमाज़ के बाद सबके गले लगाकर इत्र लगाते हैं."

चौधरी खानदान सिर्फ़ रामलीला कराता ही नहीं है बल्कि उससे सीख भी लेता है. चौधरी शुजा कहते हैं," हमारे लिए राम जी का दर्ज़ा हमेशा सबसे ऊपर रहा है. हनुमान जी का भी ऊंचा स्थान है. उन्होंने श्रीराम जी के लिए लंका में आग लगा कर एक मिसाल दी थी कि अपने पूज्य के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं."
एक मुस्लिम परिवार के दशहरा मेला और रामलीला कराना आसपास के इलाकों में चर्चा का विषय है.
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