रिसर्च से यह नई और चौंकाने वाली बात सामने आई है कि जन्म के बाद शिशु के पेट में जो कुछ भी जाता है, उसका असर पूरी ज़िंदगी बना रहता है.
साल 2017 की बात है. लंदन के क्वीन्स हॉस्पिटल की पैथोलॉजी लैब में दो तकनीशियन दिन की डाक का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.
किसी अच्छे दिन इस लैब को लगभग 50 छोटे-छोटे, कसकर लिपटे पैकेट मिल जाते हैं. हर पैकेट के भीतर होता है एक अनोखा खज़ाना, नवजात शिशु के मल का छोटा सा नमूना, जिसे उनके माता-पिता ने डायपर से बहुत सावधानी से निकालकर भेजा होता है.
ये तकनीशियन 'बेबी बायोम' नाम की एक रिसर्च का हिस्सा हैं. इस स्टडी का मकसद यह समझना है कि शिशु का गट माइक्रोबायोम, यानी पाचन तंत्र में मौजूद खरबों सूक्ष्म जीवाणु, आगे चलकर उसके स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करते हैं.
2016 से 2017 के बीच इस लैब में 3,500 नवजात शिशुओं के मल के नमूनों का विश्लेषण किया गया.
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नमूने बहुत थे, लेकिन नतीजे और भी ज़्यादा हैरान करने वाले निकले.
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (यूसीएल) में इंफेक्शियस डिज़ीज़ एपिडेमियोलॉजी के प्रोफेसर निगेल फ़ील्ड, 'बेबी बायोम' प्रोजेक्ट का नेतृत्व कर रहे हैं. वो कहते हैं, "जन्म के तीन या चार दिन बाद ही आंत में माइक्रोब्स की मौजूदगी के साफ़ संकेत दिखने लगते हैं. यानी कॉलोनी बनने में कुछ दिन लगते हैं."
निगेल फ़ील्ड बताते हैं, "जब बच्चा पैदा होता है, तो उसका शरीर लगभग पूरी तरह स्टेराइल होता है. यह इम्यून सिस्टम के लिए बेहद अहम पल होता है, क्योंकि उस समय तक शरीर की कोई भी सतह माइक्रोब्स के संपर्क में नहीं आई होती."
इम्यून सिस्टम के आर्किटेक्टहम सभी जन्म के शुरुआती कुछ दिन पार करने के बाद एक गट माइक्रोबायोम विकसित करते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि बैक्टीरिया, फंगी और वायरस का यह समुदाय हमारे स्वास्थ्य में अहम भूमिका निभाता है.
वयस्क होने पर यही सूक्ष्मजीव पचने में मुश्किल फाइबर को तोड़ने में मदद करते हैं और कुछ विटामिन बनाने के लिए ज़रूरी एंजाइम उपलब्ध कराते हैं. सिर्फ़ शरीर में मौजूद रहने भर से ये हमें हानिकारक रोगाणुओं से बचाते हैं. कुछ तो हमलावर जीवाणुओं को मारने के लिए नेचुरल एंटीबायोटिक्स भी छोड़ते हैं.
एक स्वस्थ गट माइक्रोबायोम के फायदे इससे कहीं ज़्यादा हैं. नई रिसर्च बताती है कि अगर यह सही ढंग से काम करे तो चिंता, अवसाद और अल्ज़ाइमर जैसी न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों से भी सुरक्षा दे सकता है.
लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि अगर वयस्क अवस्था में किसी का गट माइक्रोबायोम "अस्वस्थ" हो जाए, तो यह दिल की बीमारियों, कोलोरेक्टल कैंसर, क्रॉनिक किडनी डिज़ीज़, डायबिटीज़, इनफ्लेमेटरी बॉवेल डिज़ीज़ और मोटापे जैसी कई गंभीर बीमारियों से जुड़ा पाया गया है.
Getty Images पैदा होने के कुछ दिन बाद ही आंत में बैक्टीरिया घर बनाते हैं वैज्ञानिकों ने अब तक आंत के बैक्टीरिया की वयस्क स्वास्थ्य में भूमिका पर तो कई स्टडी की हैं, लेकिन बचपन में इनके प्रभाव के बारे में बहुत कम जानकारी थी. अब यह तस्वीर बदलने लगी है.
ऑस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी में सीनियर लेक्चरर अर्चिता मिश्रा शुरुआती जीवन में इम्यून डेवलपमेंट में माइक्रोबायोम की भूमिका पर स्टडी कर रही हैं.
वो कहती हैं, "शिशु की आंत में सबसे पहले बसने वाले सूक्ष्मजीव इम्यून सिस्टम के आर्किटेक्ट की तरह होते हैं. ये शरीर को यह पहचानना सिखाते हैं कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन. ये इम्यून सेल्स को ट्रेन करते हैं कि भोजन के एंटीजेन्स और हानिरहित सूक्ष्मजीवों को कैसे सहन किया जाए, और असली रोगाणुओं से कैसे लड़ाई की जाए."
मिश्रा के मुताबिक़, जीवन के पहले छह से बारह महीनों में बनने वाले बैक्टीरिया का समूह एलर्जी के जोखिम, बच्चों की वैक्सीन के प्रति प्रतिक्रिया और गट बैरियर यानी आंत की वह परत जो शरीर के बाकी हिस्सों को अलग करती है, उसके कामकाज को प्रभावित करता है.
मिश्रा कहती हैं, "जीवन के पहले हज़ार दिन एक ऐसी खिड़की जैसे हैं, जब गट माइक्रोबायोम शरीर पर एक गहरी छाप छोड़ता है, जो कई दशकों तक बनी रहती है."
जन्म के पहले ही दिन से असर शुरूप्लेसेंटा को आमतौर पर एक कीट-मुक्त क्षेत्र माना जाता है, यानी गर्भ में पल रहे शिशुओं में गट माइक्रोबायोम नहीं होता. लेकिन अब रिसर्च है कि पहले की मान्यता के उलट, शिशुओं को ज़्यादातर बैक्टीरिया अपनी मां के पाचन तंत्र से मिलते हैं, न कि योनि से.
सिडनी की न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल माइक्रोबायोम के विशेषज्ञ सीनियर लेक्चरर स्टीवन लीच कहते हैं, "प्रकृति के पास नवजात शिशु में बताती गट माइक्रोबायोम स्थापित करने का बहुत उन्नत तरीका है."
वो समझाते हैं, "अगर आप जन्म की प्रक्रिया को देखें तो शिशु का जन्म सिर के बल होता है और उसका चेहरा मां की रीढ़ की ओर रहता है. शरीर रचना के हिसाब से देखें तो शिशु का सिर मां की आंत की सामग्री को बाहर की ओर धकेल रहा होता है. यानी जब बच्चा जन्म लेता है, तो उसका चेहरा मल से भरा होता है."
ऐसा लगता है कि जन्म के क्षण से ही गट बैक्टीरिया हमारे स्वास्थ्य पर असर डालना शुरू कर देते हैं. उदाहरण के तौर पर, निगेल फ़ील्ड की रिसर्चबताती है कि जिन शिशुओं के पेट में जीवन के शुरुआती दिनों में सही बैक्टीरिया मौजूद होते हैं, वे आगे चलकर वायरल संक्रमणों से बेहतर तरीके से बच पाते हैं.
उनकी टीम ने चौथे, सातवें और इक्कीसवें दिन 600 शिशुओं के मल के नमूनों का विश्लेषण किया. इनमें से कुछ बच्चों की छह महीने और एक साल बाद दोबारा जांच की गई.
फ़ील्ड कहते हैं, "सबसे बड़ा अंतर जन्म के तरीके का होता है. सीज़ेरियन से जन्मे बच्चे, सामान्य प्रसव वाले बच्चों से काफी अलग नज़र आते हैं."
यह बात समझ में आती है, क्योंकि सीज़ेरियन से जन्मे बच्चों को योनि से जन्म लेने वाले शिशुओं की तरह "चेहरा भर मल" का अनुभव नहीं होता. सीज़ेरियन एक जीवन रक्षक और कई बार ज़रूरी चिकित्सीय प्रक्रिया है, लेकिन रिसर्च से पता चला है कि इस तरह जन्म लेने वाले बच्चों को वो फायदेमंद बैक्टीरिया नहीं मिलते जो उन्हें सांस से जुड़ी बीमारियों से बचा सकते हैं.
2019 की एक स्टडी में पाया गया कि जन्म के पहले हफ़्ते में तीन प्रमुख शुरुआती प्रजातियों में से एक आमतौर पर बच्चे की आंत में बस जाती है, बिफीडोबैक्टीरियम लोंगम (बी. लोंगम), बिफीडोबैक्टीरियम ब्रेवे (बी. ब्रेवे) या एंटरोकोकस फेकेलिस (ई. फेकेलिस).
फ़ील्ड बताते हैं, "जो बैक्टीरिया बच्चे को शुरुआत में मिलता है, वही आगे चलकर दूसरी प्रजातियों के लिए रास्ता बनाता है. वह फिर उसकी आंत में कॉलोनी बना लेते हैं."
सातवें दिन तक सामान्य प्रसव से जन्मे बच्चों के पाचन तंत्र में आमतौर पर बी. लोंगम या बी. ब्रेवे मौजूद होते हैं, जबकि सीज़ेरियन से जन्मे बच्चों में ई. फेकेलिस की कॉलोनी बसने की संभावना ज़्यादा होती है.
सामान्य प्रसव से जन्मे बच्चों का गट माइक्रोबायोम आमतौर पर उनकी मां के माइक्रोबायोम जैसा होता है. इससे यह पुष्टि होती है कि बैक्टीरिया ज़्यादातर मां की आंत से आते हैं, न कि योनि से. वहीं, सीज़ेरियन से जन्मे शिशुओं में अस्पताल के वातावरण से जुड़े बैक्टीरिया ज़्यादा पाए गए.
फ़ील्ड कहते हैं, "ई. फेकेलिस ऐसा बैक्टीरिया है जो अवसरवादी संक्रमण से जुड़ा है. अगर आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली ठीक से काम नहीं कर रही है तो यह बीमारी का कारण बन सकता है."
रिसर्चरों ने पाया कि योनि से जन्मे और सीज़ेरियन से जन्मे बच्चों के बीच आंत के बैक्टीरिया में दिखने वाला अंतर, शिशु के एक साल का होने तक काफी हद तक कम हो जाता है. हालांकि कुछ संकेत बताते हैं कि जिन बच्चों के पेट में जन्म के पहले दिन से ही फायदेमंद बैक्टीरिया मौजूद थे, उनका स्वास्थ्य बेहतर रहा. टीम ने 1,000 से ज़्यादा शिशुओं पर नज़र रखी ताकि यह देखा जा सके कि क्या उनमें से किसी को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा.
निगेल फ़ील्ड कहते हैं, "हमने देखा कि जिन शिशुओं की आंतों में बी. लोंगम ज़्यादा सक्रिय था, उनके पहले दो सालों के दौरान श्वसन संक्रमण के लिए अस्पताल में भर्ती होने की संभावना बी. ब्रेवे और ई. फेकेलिस वाले शिशुओं की तुलना मेंलगभग आधीथी."
दूसरे शब्दों में कहें तो, बी. लोंगम का होना योनि से जन्मे बच्चों को सांस से जुड़ी बीमारियों से बचाता लगता है. यह भी संभव है कि बी. लोंगम जैसे फायदेमंद गट बैक्टीरिया की कमी यह समझा सके कि सीज़ेरियन से जन्मे बच्चों में अस्थमा, एलर्जी, ऑटोइम्यून विकार और मोटापे जैसी बीमारियों का खतरा थोड़ा ज़्यादा क्यों होता है. हालांकि इसकी पुष्टि के लिए और रिसर्च की ज़रूरत है.
अभी तक यह पूरी तरह साफ़ नहीं है कि शिशु की आंत के बैक्टीरिया उसे संक्रमण से कैसे बचाते हैं. लेकिन एक प्रमुख सिद्धांत के मुताबिक़, बिफीडोबैक्टीरियम जैसे बी. लोंगम या लैक्टोबैसिलस नाम के दूसरे फायदेमंद बैक्टीरिया, मानव दूध में मौजूद ओलिगोसेकेराइड्स नामक जटिल शुगर्स को तोड़ने में माहिर होते हैं. ये शुगर्स स्तन दूध का अहम घटक हैं, लेकिन शिशु के अपने एंजाइम इन्हें पचा नहीं पाते.
बी. लोंगम इन शुगर्स को शॉर्ट चेन फैटी एसिड्स (एससीएफए) नाम के मॉलिक्यूल्स में बदल देता है. माना जाता है कि ये एससीएफए इम्यून सिस्टम को नियंत्रित करते हैं और शिशु को संक्रमण से बेहतर तरीके से लड़ने में मदद करते हैं.
एससीएफए शिशु की प्रतिरक्षा प्रणाली को यह सिखाने में भी मदद कर सकते हैं कि कौन-सी चीज़ें हानिरहित हैं और किन पर प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए. यानी, ये इम्यून सिस्टम को ज़्यादा संतुलित और सहनशील बनाते हैं.
'ओवररिएक्टिव इम्यून रिस्पॉंस'लीच कहते हैं, "पश्चिमी समाजों में अब हम असल में किसी घातक बैक्टीरिया के संपर्क में नहीं आते. इसलिए वहां जो स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं, वे ज़्यादातर ओवररिएक्टिव इम्यून रिस्पॉन्स से जुड़ी हैं."
माना जाता है कि बिफीडोबैक्टीरियम हमारेपेट में ऐसा वातावरण बनाने में मदद करते हैं, जिसमें खतरनाक बैक्टीरिया टिक नहीं पाते या मर जाते हैं. वयस्कों की आंत के विपरीत, नवजात शिशुओं की आंतें एरोबिक होती हैं, यानी उनमें ऑक्सीजन होती है. यह इसलिए होता है ताकि आंत पहली बार पोषक तत्वों को अवशोषितकरने की प्रक्रिया शुरू कर सके. जन्म के समय आंतें न तो अम्लीय होती हैं और न क्षारीय उनका पीएच स्तर तटस्थ होता है.
लीच कहते हैं, "समस्या यह है कि जो बैक्टीरिया नवजात शिशुओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं, उन्हें यही तटस्थ और ऑक्सीजन-युक्त वातावरण पसंद होता है."
बिफीडोबैक्टीरियम पेट में मौजूद ऑक्सीजन का तेज़ी से इस्तेमाल करते हैं, जिससे वहां ऑक्सीजन कम होती है और पीएच स्तर नीचे चला जाता है. यह ऐसा माहौल बनाता है जिसमें बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया पनप नहीं पाते.
हालांकि, वैज्ञानिक अभी इस पूरी प्रक्रिया को समझने की शुरुआती अवस्था में हैं. निगेल फ़ील्ड कहते हैं, "यह कहना कि 'सीज़ेरियन सेक्शन कम लाभदायक है और योनि से प्रसव बेहतर है', इतना आसान नहीं है. हर योनि से जन्मे बच्चे को वे बैक्टीरिया नहीं मिलते जिनसे बीमारी का खतरा कम होता है, और हर सीज़ेरियन बच्चे की सेहत वैसी नहीं होती जैसी हमें चिंता रहती है."
इसके बावजूद यह खोज एक बड़ा सवाल उठाती है, क्या हमें शिशुओं, ख़ासकर सीज़ेरियन से जन्मे बच्चों के माइक्रोबायोम में दखल देना चाहिए ताकि उन्हें फ़ायदेमंद बैक्टीरिया मिल सकें?
अर्चिता मिश्रा कहती हैं, "सीज़ेरियन से कई जिंदगियां बचती हैं, इसलिए हमारा काम यह होना चाहिए कि जो माइक्रोबायोम छूट गया है, उसे सुरक्षित और सटीक तरीके से दोबारा बनाया जाए."
सवाल यह है कि यह कैसे किया जाए? एक तरीका है जिसे कभी-कभी आज़माने पर विचार किया जाता है, इसे वेजाइनल सीडिंग कहा जाता है. इसमें मां की योनि से लिए गए द्रव का एक फ़ाहा नवजात शिशु की त्वचा और मुंह पर लगाया जाता है, इस उम्मीद में कि उसमें मौजूद फायदेमंद सूक्ष्मजीव बच्चे के पेट में जाकर कॉलोनी बना लें.
यह तरीका अब लोकप्रिय होता जा रहा है, लेकिन विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि इससे खतरनाक रोगाणु भी फैल सकते हैं. उदाहरण के तौर पर, एक चौथाई से ज़्यादा महिलाओं की योनि मेंग्रुप-बी स्ट्रेप नामक जीवाणु पाया जाता है, जो शिशु के लिए घातक साबित हो सकता है. इसके अलावा, 2019 की बेबी बायोम रिसर्च में पाया गया कि फायदेमंद बैक्टीरिया वैसे भी मां की योनि से नहीं आ रहे थे.
इसके अन्य विकल्प भी मौजूद हैं, जैसे फीकल माइक्रोबियल ट्रांसप्लांट, जिसे आम भाषा में मल ट्रांसप्लांट कहा जाता है. इसमें मां के मल से लिए गए बैक्टीरिया को बच्चे के पेट में पहुंचाया जाता है. कुछ छोटे स्तर के ट्रायल्स में इसके सकारात्मक नतीजे मिले हैं, लेकिन फिलहाल इसकी सिफारिश नहीं की जाती.
निगेल फ़ील्ड कहते हैं, "अभी हमें यह नहीं पता कि मां के शरीर से लिए गए बैक्टीरिया चाहे वो योनि से हों या मल से बच्चे के लिए सही हैं या नहीं. हो सकता है वे नुकसान भी पहुंचाएं, जिसका हमें अभी अंदाज़ा नहीं है."
फिलहाल, बच्चों के पेट में फायदेमंद बैक्टीरिया पहुंचाने के लिए प्रोबायोटिक सप्लीमेंट्स को सबसे सुरक्षित और असरदार तरीका माना जा रहा है. कुछ क्लिनिकल ट्रायल्स में पाया गया है कि ये सप्लीमेंट्स समय से पहले जन्मे या कम वज़न वाले नवजातों को नेक्रोटाइज़िंग एंटरोकोलाइटिस जैसी गंभीर बीमारी से बचा सकते हैं. कुछ अन्य रिसर्च यह भी बताती हैं कि ये समय से पहले जन्म की संभावना को कम कर सकते हैं. हालांकि यह अब भी एक चुनौती है कि किस बच्चे को कौन-सा बैक्टीरिया दिया जाए.
स्टीवन लीच कहते हैं, "शिशुओं के माइक्रोबायोम में किसी तरह का बदलाव करते वक्त ध्यान इस बात पर होना चाहिए कि इंसानी हस्तक्षेप ने प्राकृतिक प्रक्रिया को किस हद तक प्रभावित किया है. हमें उसी को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए. वैजाइनल सीडिंग और मल ट्रांसप्लांट दरअसल 'गंदे प्रोबायोटिक्स' हैं, जिनमें क्या-क्या है, यह पता नहीं होता, और उनमें खतरा भी होता है. इसलिए प्रोबायोटिक्स ही सबसे भरोसेमंद रास्ता हैं."
अर्चिता मिश्रा भी मानती हैं कि मुंह से दिए जाने वाले प्रोबायोटिक्स सबसे व्यावहारिक और सुरक्षित तरीका हो सकते हैं, हालांकि वे कहती हैं कि हर बच्चे का पेट अलग होता है, इसलिए नतीजे भी अलग हो सकते हैं.
वो आगे कहती हैं कि भविष्य में बच्चों के जेनेटिक डेटा, खानपान और इम्यून प्रोफाइल को ध्यान में रखकर सटीक माइक्रोबायोम तैयार किए जा सकेंगे.
मिश्रा कहती हैं, "इसे आप 'पर्सनलाइज़्ड माइक्रोबियल मेडिसिन' कह सकते हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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